आखिर क्यों हमें घेर रही हैं तमाम नई बीमारियां
इनफ्लुएंजा, डेंगू, मलेरिया, कंजक्टीवाइटिस जैसे संक्रमण भारत में पहले मौसमी होते थे, लेकिन अब वे साल भर हमें परेशान करते हैं। ऐसा क्यों हो रहा है? क्या इसलिए कि मौसम की अति के चलते वायरस अपना व्यवहार बदल रहे हैं? या फिर हमारी इम्यून प्रतिक्रिया बदल रही है? या फिर तेजी से बढ़ती आबादी के कारण मानव बस्तियां जंगलों पर कब्जा करती जा रही हैं, जिससे मानव और पशु एक-दूसरे के बहुत करीब रहने लगे हैं, और इससे संक्रमण बढ़ रहे हैं? कुछ मामलों में तो जंगली पशुओं को संक्रमित करने वाले वायरस अब मानव को संक्रमित करने लगे हैं?
दरअसल, ये सब चीजें एक साथ हो रही हैं। तापमान के बढ़ने और बेमौसम बरसात ने मच्छरों के प्रजनन काल को भी बढ़ाया है और उनके प्रजनन क्षेत्र को भौगोलिक विस्तार भी दिया है। इसकी वजह से मलेरिया और डेंगू जैसे रोग अब साल में किसी भी समय हो सकते हैं। हाल में हुए कई अध्ययन बता रहे हैं कि इसने हमारे शरीर के सुरक्षा तंत्र पर भी असर डाला है। अमेरिका के नेशनल एकेडेमी ऑफ साइंस का एक अध्ययन बताता है कि वातावरण का तापमान 36 डिग्री सेल्शियस से ज्यादा होने से इनफ्लुएंजा और जीका जैसे वायरस के खिलाफ हमारा इम्यून तंत्र क्षतिग्रस्त होता है। इस शोध से यह भी पता चलता है कि तापमान बढ़ने से सांस संबंधी रोगों से लड़ने वाले शरीर के एंटीबॉडी प्रभावित होते हैं।
नए तरह के संक्रमणों का खतरा भी बढ़ा है, जिन्हें जूनोसेस कहा जाता है, यानी ऐसे संक्रमण, जो पशुओं के शरीर से मानव शरीर में पहंुच रहे हैं। इस तरह के वायरस सबसे खतरनाक हैं, क्योंकि हमारे शरीर में उनसे लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता मौजूद नहीं है। मानव बस्तियों का लगातार विस्तार इस खतरे को बढ़ा रहा है। लोग जितना ज्यादा पशुओं के करीब रहने लगेंगे, उनके संक्रमणों से मानव के प्रभावित होने का खतरा भी उतना ही बढ़ेगा। अगर हम इनफ्लुएंजा वायरस को ही लें, तो यह जंगली पशुओं को भी होता है, सुअरों को भी होता है, पालतू पशुओं को भी होता है, पोल्ट्री फार्म के पक्षियों को भी होता है और इंसानों को भी होता है। भारत की आबादी 1.1 फीसदी की रफ्तार से बढ़ रही है, जिसके चलते एक तो लोग पशुओं के करीब रहने को मजबूर हैं, दूसरी तरफ ऐसे पशु हैं, जो मानव बस्तियों के कारण अपने आवास खो रहे हैं। इस वायरस के कई सबटाइप होते हैं, अमेरिका के सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल के अनुसार, इस वायरस के सैद्धांतिक रूप से 198 सबटाइप हो सकते हैं। इनमें से सिर्फ तीन ही ऐसे हैं, जिनका मानव से मानव में संक्रमण हो सकता है। लेकिन इनके खतरें बहुत बड़े हैं। हमारे पास पिछले कुछ समय के ऐसे तमाम उदाहरण हैं, जब पशुओं में पाए जाने वाले वायरस ने मानव को संक्रमित किया।
एच1एन1 वायरस पहले सुअरों में पाया जाता था, वहां से यह मानव में आया, इसी से इस रोग का नाम स्वाइन फ्लू पड़ा। इसका सबसे पहले मैक्सिको में 2009 में पता चला था और कुछ ही महीनों में पांच महाद्वीपों के हजारों लोग इसकी वजह से मौत के मंुह में पहंुच गए। इसी तरह एच7एन9 का मामला चीन में 2013 में सामने आया, यह पोल्ट्री फार्म से मानव में फैला। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 766 लोगों के इससे संक्रमित होने की पुष्टि हुई, जिनमें से 39 फीसदी की जान इसकी वजह से ही चली गई। इसी तरह से सीवियर एक्यूट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम यानी सार्स है। यह चीन में नवंबर 2002 में चमगादड़ों से मानव में फैला था। 8,098 लोगों को यह संक्रमण हुआ, जिनमें से 774 को नहीं बचाया जा सका। 2004 में इसे नियंत्रित कर लिया गया। यही कहानी निप्हा वायरस की है, जिसका संक्रमण शुरू तो मलेशिया में हुआ, लेकिन इसने पश्चिम बंगाल और केरल तक लोगों को अपना शिकार बनाया। जीका और एबोला भी इसी तरह के वायरस हैं।
घरेलू और अंतरराष्ट्रीय यात्राओं के चलते ये वायरस एक से दूसरे देश और दुनिया भर में फैल जाते हैं। इन्हें नियंत्रित करना एक चुनौती बनता जा रहा है। इनके लिए नई वैक्सीन बनाने की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहल हुई है। इसके अलावा, यह कोशिश भी चल रही है कि लोगोंे को इसके लिए लगातार जागरूक बनाया जाए।
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