किशोरों में बढ़ते अवसाद से लड़ने की जरूरत
अनीष व्यास
स्वतंत्र पत्रकार
भारत में 13 से 17 साल के बच्चों की मौत की सबसे बड़ी वजह खुदकुशी है, जिसे तकनीकी शब्दों में ‘सेल्फ हार्म’ यानी खुद को चोट पहुंचाना कहते हैं। इसके बाद सड़क दुर्घटना को दूसरा बड़ा कारण माना गया है। राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2015-16 के अनुसार, देश में 13 से 17 साल के कम से कम एक करोड़ बच्चे मानसिक रोगों से जूझ रहे हैं, लिहाजा इस मसले पर संजीदगी से सोचने की जरूरत है। बावजूद इसके, हमारे देश में किशोरों के बीच मानसिक रोगों को लेकर जागरूकता का भारी अभाव है।
मानसिक बीमारियां, जिनमें अवसाद और चिंता या बेचैनी भी शामिल हैं, बचपन के अंतिम चरण और किशोरावस्था की शुरुआत में उभरती हैं, और आम तौर पर वयस्क होने के बाद भी बनी रहती हैं।
मगर मुंबई और दिल्ली-एनसीआर में किए गए एक सर्वेक्षण के मुताबिक, 67 फीसदी छात्रों को इन सामान्य बीमारियों का कोई ईल्म ही नहीं होता। इस सर्वेक्षण में 130 निजी स्कूलों के करीब 200 स्कूल काउंसिलर, विशेष शिक्षक, मनोवैज्ञानिक आदि को शामिल किया गया था।
देश में पंजीकृत मनोचिकित्सकों की संख्या 3,827 है और क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट की 898। इनमें से ज्यादातर अस्पतालों में या फिर अपनी क्लिनिक पर सेवा देते हैं। यहां छात्र-छात्राएं शायद ही जाते हैं। अगर किसी किशोर को अपनी बीमारी को लेकर कोई जानकारी भी लेनी होती है, तो वह सोशल मीडिया या इंटरनेट का रुख करता है, जहां आमतौर पर गलत सूचनाएं दी जाती हैं या फिर अप्रामाणिक। ये माध्यम उन्हें अपने दोस्तों, परिवार के लोगों और स्कूल काउंसिलर से बात करने से भी रोकते हैं।
फोर्टिस स्कूल मेंटल हेल्थ प्रोग्राम के एक सर्वे में शामिल मानसिक स्वास्थ्य सलाहकार और पेशेवरों का कहना है कि इसी वजह से स्कूलों को मानसिक सेहत पर एक समग्र पाठ्यक्रम अपनाने की जरूरत है। मगर इस दिशा में काफी कम प्रयास हो रहे हैं। और यह स्थिति तब है, जब परीक्षा का तनाव आज भी विद्यार्थियों को खुदकुशी के लिए उकसा रहा है। असल में, इसका कारण मनोवैज्ञानिक या मनोचिकित्सकों तक लोगों की सीमित पहुंच तो है ही, मानसिक रोगों से जुड़ा सामाजिक कलंक भी है।
बहरहाल, इस सर्वे का नेतृत्व करने वाले डॉक्टर समीर पारिख का कहना है कि ‘इस संवेदनशील मुद्दे पर स्कूलों और परिवारों में शायद ही कभी बातचीत होती है। इसी वजह से अवसाद, बेचैनी या अन्य समस्याएं लगातार बनी रहती हैं। इससे घर और स्कूल में बच्चों में व्यवहारगत मुश्किलें पनपने लगती हैं और वे तंबाकू, शराब और नशीली दवाएं लेने, कक्षाओं से गायब रहने, बदमाशी करने और स्कूलों में क्षमता से कम प्रदर्शन करने लगते हैं’। यहां तक कि जो बच्चे खुश दिखाई देते हैं और सोशल मीडिया पर सक्रिय रहते हैं, वे भी दिखने की अपेक्षा कहीं अधिक अकेला और तनाव महसूस करते हैं।
सीबीएसई स्कूलों के 13 से 15 साल के 6,751 बच्चों पर किए गए विश्व स्वास्थ्य संगठन के सर्वे में हर दस में से एक बच्चे का यही कहना था कि उनका कोई करीबी दोस्त नहीं है। हमारे यहां यह आंकड़ा 10 फीसदी है, जबकि इंडोनेशिया में महज तीन फीसदी।
बेशक सोशल नेटवर्किंग से सीधे तौर पर अकेलापन या अवसाद नहीं होता, लेकिन यह इन पर परदा डालने का काम करता है। एम्स के मनोचिकित्सक डॉक्टर नंद कुमार के मुताबिक, ‘बच्चों और किशोरों में मानसिक रोगों की पहचान और उनके निदान में हमारी विफलता सार्वजनिक स्वास्थ्य से जुड़ा एक गंभीर मसला है, जबकि दिमागी हालत का सामान्य स्वास्थ्य, शिक्षा, सामाजिक और विकास से जुड़ी अन्य समस्याओं से सीधा रिश्ता है’। डॉक्टर पारिख की मानें, तो ‘परिवार और दोस्तों के बीच समय बिताने से भावनात्मक और सामाजिक सहारा मिलता है, मगर जब वास्तविक दुनिया की दोस्ती की बजाय बातचीत आभासी दुनिया में शुरू हो जाती है, तो मानसिक रोगों से लड़ने की कुदरती क्षमता छीजने लगती है और किशोर खुद को वास्तविक व आभासी, दोनों दुनिया में अकेला महसूस करने लगता है। तब उसके लिए यह जाहिर करना भी मुश्किल हो जाता है कि उसे भावनात्मक सहारे की जरूरत है’। मानसिक तनाव से बचने हेतु एंड्रॉइड मोबाइल का कम से कम इस्तेमाल होना चाहिए। धार्मिक ग्रंथों का घर परिवार में पठन पाठन हो। एकाकीपन से बचें। योग कक्षाओं में नियमित जाएं। आवश्यकता से अधिक वार्तालाप न करें। सकारात्मक सोच रखें। सबसे हिलमिलकर रहना सीखें।
किशोरावस्था यानी 13 से 19 वर्ष की आयु के युवक युवतियाँ । इस अवस्था मे शारीरिक बदलाब होने लगते हैं जिनमें प्रमुख है मिज़ाज का बदलना,क्रोध की अधिकता,शराब का सेवन करना आम बात है जिनके कारण जीवन में अवसाद चिंता और अन्य भावनात्मक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। अमेरिकी मनोरोग एसोसिएशन की रिपोर्ट के मुताबिक अत्यधिक मानसिक रोग लगभग 14 वर्ष से को होने लगता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के सर्वे के अनुसार बीस फीसदी बच्चों व किशोरों को मानसिक रोगों से ग्रसित पाया गया।
मानसिक तनाव के प्रमुख कारणों में किशोरों में माता पिता से अनबन होना या माता पिता द्वारा किशोरों पर पूर्ण रूप से ध्यान नहीं देने के कारण मानसिक तनाव होता है।
मस्तिष्क में रसायनों के असंतुलन होने या वंशानुगत खराबी होने से या खान पान में पोषक तत्वों की कमी की वजह से मानसिक तनाव होता है।
मादक द्रव्यों के सेवन से किशोरों में मानसिक तनाव होता है। अधिकांश किशोर किशोरियां डिग्री तो प्राप्त कर लेते है परंतु उन्हें रोजगार नहीं मिलता। ऐसे में मानसिक तनाव उत्पन्न होने से आये दिन कोचिंग के छात्र आत्महत्या जैसे कदम उठा रहे हैं। अवसाद के कारण घुटन अकेलापन खान पान में कमी आदि से मानसिक तनाव बढ़ता है।
किशोरों में चिड़चिड़ापन उदासी निराशा आत्मसम्मान में कमी आदि कई लक्षण तनाव के दौरान दिखाई पड़ते हैं। दर्दनाक घटनाओं का सामना करने से असामयिक मौत होते हुए देखना लंबे समय तक बीमारियों को देखना घरेलू हिंसा का शिकार होना सहन करना देखना। गरीबी से जूझना आदि कई कारणों से मानसिक तनाव बढ़ रहा है।
एकल परिवारों में बढ़ते पारिवारिक दायित्वों का इस मंहगाई के युग मे ठीक से निर्वाह नहीं कर पाने जैसे कारणों से भी मानसिक तनाव बढ़ रहा है।
परिवारों में किशोरों को अपनी इच्छापूर्ति के लिए बार बार प्रताड़ित कर बाद में पश्चाताप करने से भी पारिवारिक तनाव देखने को मिलता है।
आज माता पिता किशोरों को रुपये पैसे सब दे। रहे है लेकिन समय नहीं देते । इस उम्र में उन्हें अपनत्व की जरूरत होती है।
किशोरों में अत्यधिक तनाव होने से हिंसा की घटनाएं होती है। योग को जीवन मे अपनाने से मानसिक तनाव कम किया जा सकता है। आज किशोरों में माइग्रेन की समस्या आम है। छोटी छोटी बातों में निराश हो जाते है। जल्दी सर हार मान लेते है। जीवन संघर्ष में पिछड़ने लगे है। भावात्मक संवेदना नहीं रही है। संभावनाएं तो किशोरों में अपार है लेकिन खोज कोई नहीं करता। सहन करना तो उन्होंने सीखा नहीं। किसी को माफ वह कर नहीं सकते। ये सब गुण मस्तिष्क को शांत बनाते है लेकिन आज किशोरों में ये गुण नहीं मिलते इसीलिए वे उग्र हो जाते है। मगर मुंबई और दिल्ली-एनसीआर में किए गए एक सर्वेक्षण के मुताबिक, 67 फीसदी छात्रों को इन सामान्य बीमारियों का कोई ईल्म ही नहीं होता। इस सर्वेक्षण में 130 निजी स्कूलों के करीब 200 स्कूल काउंसिलर, विशेष शिक्षक, मनोवैज्ञानिक आदि को शामिल किया गया था।
देश में पंजीकृत मनोचिकित्सकों की संख्या 3,827 है और क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट की 898। इनमें से ज्यादातर अस्पतालों में या फिर अपनी क्लिनिक पर सेवा देते हैं। यहां छात्र-छात्राएं शायद ही जाते हैं। अगर किसी किशोर को अपनी बीमारी को लेकर कोई जानकारी भी लेनी होती है, तो वह सोशल मीडिया या इंटरनेट का रुख करता है, जहां आमतौर पर गलत सूचनाएं दी जाती हैं या फिर अप्रामाणिक। ये माध्यम उन्हें अपने दोस्तों, परिवार के लोगों और स्कूल काउंसिलर से बात करने से भी रोकते हैं।
फोर्टिस स्कूल मेंटल हेल्थ प्रोग्राम के एक सर्वे में शामिल मानसिक स्वास्थ्य सलाहकार और पेशेवरों का कहना है कि इसी वजह से स्कूलों को मानसिक सेहत पर एक समग्र पाठ्यक्रम अपनाने की जरूरत है। मगर इस दिशा में काफी कम प्रयास हो रहे हैं। और यह स्थिति तब है, जब परीक्षा का तनाव आज भी विद्यार्थियों को खुदकुशी के लिए उकसा रहा है। असल में, इसका कारण मनोवैज्ञानिक या मनोचिकित्सकों तक लोगों की सीमित पहुंच तो है ही, मानसिक रोगों से जुड़ा सामाजिक कलंक भी है।
बहरहाल, इस सर्वे का नेतृत्व करने वाले डॉक्टर समीर पारिख का कहना है कि ‘इस संवेदनशील मुद्दे पर स्कूलों और परिवारों में शायद ही कभी बातचीत होती है। इसी वजह से अवसाद, बेचैनी या अन्य समस्याएं लगातार बनी रहती हैं। इससे घर और स्कूल में बच्चों में व्यवहारगत मुश्किलें पनपने लगती हैं और वे तंबाकू, शराब और नशीली दवाएं लेने, कक्षाओं से गायब रहने, बदमाशी करने और स्कूलों में क्षमता से कम प्रदर्शन करने लगते हैं’। यहां तक कि जो बच्चे खुश दिखाई देते हैं और सोशल मीडिया पर सक्रिय रहते हैं, वे भी दिखने की अपेक्षा कहीं अधिक अकेला और तनाव महसूस करते हैं।
सीबीएसई स्कूलों के 13 से 15 साल के 6,751 बच्चों पर किए गए विश्व स्वास्थ्य संगठन के सर्वे में हर दस में से एक बच्चे का यही कहना था कि उनका कोई करीबी दोस्त नहीं है। हमारे यहां यह आंकड़ा 10 फीसदी है, जबकि इंडोनेशिया में महज तीन फीसदी।
बेशक सोशल नेटवर्किंग से सीधे तौर पर अकेलापन या अवसाद नहीं होता, लेकिन यह इन पर परदा डालने का काम करता है। एम्स के मनोचिकित्सक डॉक्टर नंद कुमार के मुताबिक, ‘बच्चों और किशोरों में मानसिक रोगों की पहचान और उनके निदान में हमारी विफलता सार्वजनिक स्वास्थ्य से जुड़ा एक गंभीर मसला है, जबकि दिमागी हालत का सामान्य स्वास्थ्य, शिक्षा, सामाजिक और विकास से जुड़ी अन्य समस्याओं से सीधा रिश्ता है’। डॉक्टर पारिख की मानें, तो ‘परिवार और दोस्तों के बीच समय बिताने से भावनात्मक और सामाजिक सहारा मिलता है, मगर जब वास्तविक दुनिया की दोस्ती की बजाय बातचीत आभासी दुनिया में शुरू हो जाती है, तो मानसिक रोगों से लड़ने की कुदरती क्षमता छीजने लगती है और किशोर खुद को वास्तविक व आभासी, दोनों दुनिया में अकेला महसूस करने लगता है। तब उसके लिए यह जाहिर करना भी मुश्किल हो जाता है कि उसे भावनात्मक सहारे की जरूरत है’। मानसिक तनाव से बचने हेतु एंड्रॉइड मोबाइल का कम से कम इस्तेमाल होना चाहिए। धार्मिक ग्रंथों का घर परिवार में पठन पाठन हो। एकाकीपन से बचें। योग कक्षाओं में नियमित जाएं। आवश्यकता से अधिक वार्तालाप न करें। सकारात्मक सोच रखें। सबसे हिलमिलकर रहना सीखें।
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