सोशल मीडिया...झूठ और सच
झूठ के पाँव
नहीं होते, ये
पुराना मुहावरा है लेकिन
सोशल मीडिया पर
झूठ के पंख
होते हैं । 'फ़ेक न्यूज़' पर हुए
अब तक के
सबसे बड़े अध्ययन
के बाद वैज्ञानिकों
का कहना है
कि झूठी ख़बरें
बहुत तेज़ी से
और बहुत दूर
तक फैलती हैं,
इस हद तक
कि सच्ची ख़बरें
उनके मुक़ाबले टिक
नहीं पातीं ।
पिछले 10 सालों में अंग्रेजी
में किए गए
30 लाख लोगों के सवा
लाख से अधिक
ट्वीट्स का गहन
अध्ययन करने के
बाद वैज्ञानिकों ने
कहा है कि
झूठी और फ़र्ज़ी
ख़बरों में तेज़ी
से फैलने की
ताक़त होती है । वैसे झूठ अपने आप में कोई नई चीज नहीं है। इसकी समस्या सदियों पुरानी है। इसके समाधान की सीमाओं का किस्सा भी शायद उतना ही पुराना है। लेकिन सोशल मीडिया के इस नए दौर में झूठ ने एक नए तरीके से हमारे जीवन में दस्तक दी है। इसका नाम है फेक न्यूज। यानी ऐसी खबरें, जो होती तो झूठ हैं, लेकिन अक्सर हमारे सामने इस तरह से आती हैं कि बहुत से लोग उन पर विश्वास कर लेते हैं। जब कोई कहता है कि संयुक्त राष्ट्र ने भारत के राष्ट्रगान जन गण मन... को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ राष्ट्रगान घोषित किया है, तो हम आसानी से मान लेते हैं। हालांकि दिक्कत अक्सर ऐसी खबरों से नहीं होती। दिक्कत अक्सर उन खबरों से होती हैं, जो अफवाहें फैलाती हैं। जो लोगों, समुदायों या राष्ट्रों के बारे में नफरत फैलाती हैं। जो लोगों में हिस्टीरिया पैदा करती हैं और दंगों व हत्याओं का कारण बनती हैं। यह सच है कि बहुत से लोग ऐसी झूठी खबरों से अपने हित साधते हैं, लेकिन दुनिया भर के समाजशास्त्रियों को परेशान करने वाला बड़ा सवाल यह है कि लोग ऐसी खबरों पर सहज ही विश्वास क्यों कर लेते हैं?
मनोवैज्ञानिकों के पास इसके दो अलग-अलग जवाब हैं। पहला जवाब हमें बताता है कि जो खबरें हमारे पूर्वाग्रहों से मेल खाती हैं या उन्हें पुख्ता करती हैं, उन्हें हम सच मान लेते हैं। मसलन, हम अगर यह मानते रहे हैं कि हमारा राष्ट्रगान सबसे अच्छा है, तो हम इस खबर पर सहज ही यकीन कर लेंगे। लेकिन कुछ अन्य मनोवैज्ञानिकों की राय इस मामले में अलग है। उनका कहना है कि हम झूठी खबरों पर यकीन इसलिए कर लेते हैं, क्योंकि हम तथ्य को जांचने और विश्लेषण करने या फिर कई बार सिर्फ अपनी सामान्य बुद्धि का इस्तेमाल करने के मामले में आलसी होते हैं। जैसे अगर हम सिर्फ अपनी सामान्य बुद्धि का इस्तेमाल करते या तथ्य जानने की कोशिश करते, तो आसानी से यह समझ जाते कि संयुक्त राष्ट्र इस तरह का संगठन नहीं है, जो देशों की ऐसी चीजों की तुलना करके श्रेष्ठता का इनाम बांटता हो। लेकिन अब मनोवैज्ञानिक इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि ये दोनों ही चीजें सच हैं, और अलग-अलग तरह से फेक न्यूज में अपनी भूमिका निभाती हैं। यही कारण है कि फेक न्यूज का सबसे ज्यादा शिकार वही होते हैं, जो किसी धारणा के मामले में कट्टर होते हैं। वही उसके प्रसारक भी बनते हैं। जो उस धारणा को शक की नजर से देखते हैं, वे कम से कम उस फेक न्यूज को फॉरवर्ड तो नहीं करेंगे। लेकिन ऐसी फर्जी खबरें, जिनमें धारणाओं के आग्रह प्रबल नहीं होते, उस पर भी बहुत से लोग विश्वास कर लेते हैं, क्योंकि वे सच जानने की जहमत नहीं उठाते। रिसर्च करने वालों का कहना है कि फ़ेक न्यूज़ एक गंभीर समस्या है और इससे निबटने के तरीक़ों पर पूरी दुनिया के अग्रणी संगठनों को गौर करना होगा, और आगे का कोई सीधा या आसान रास्ता नहीं है।
बहुत से समाजशास्त्री यह भी मानते हैं कि फेक न्यूज कोई नई चीज नहीं है। यह किसी न किसी रूप में हमारे साथ हमेशा से ही रही है। जिसे कुछ समय पहले तक हम अफवाह कहते थे, वह भी एक तरह से फेक न्यूज ही है। कहा जाता था कि दुनिया में सबसे तेज रफ्तार अफवाह की होती है। यही अब फेक न्यूज के बारे में भी कहा जाता है। सोशल मीडिया ने फेक न्यूज को एक संस्थागत रूप और एक स्थायित्व दे
दिया है। महीनों या बरसों पुरानी कोई फेक न्यूज भी आपको ताजा खबर की तरह मिल सकती है। लेकिन अभी कोई यह नहीं जानता कि इसे आखिर रोका कैसे जाए?
बहुत से समाजशास्त्री यह भी मानते हैं कि फेक न्यूज कोई नई चीज नहीं है। यह किसी न किसी रूप में हमारे साथ हमेशा से ही रही है। जिसे कुछ समय पहले तक हम अफवाह कहते थे, वह भी एक तरह से फेक न्यूज ही है। कहा जाता था कि दुनिया में सबसे तेज रफ्तार अफवाह की होती है। यही अब फेक न्यूज के बारे में भी कहा जाता है। सोशल मीडिया ने फेक न्यूज को एक संस्थागत रूप और एक स्थायित्व दे
दिया है। महीनों या बरसों पुरानी कोई फेक न्यूज भी आपको ताजा खबर की तरह मिल सकती है। लेकिन अभी कोई यह नहीं जानता कि इसे आखिर रोका कैसे जाए?
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