श्राद्ध श्रद्धा का विषय है -प्रदर्शन का नही...!!

श्राद्ध श्रद्धा का विषय है -प्रदर्शन का नही...!!
अनीष व्यास 
स्वतंत्र पत्रकार
श्राद्ध कर्म क्या हैं : मृत्यु के बाद 10 दिन तक जो दैनिक श्राद्ध होता है उसे “नव श्राद्ध”दशगात्र  (एकादशाह)ग्यारहवे दिन का श्राद्ध”नव मिश्र श्राद्ध” और बाहरवें का श्राद्ध द्वादशाह “सपिण्डी श्राद्ध” कहलाता है ऐसा कहा जाता है इन सब कर्मो के बाद मृतक प्रेत योनि से छूटकर देव योनि में जाता है।मृत्युं के बारह महीने बाद उसी तिथि को जो श्राद्ध किया जाता है उसे पार्वण श्राद्ध कहते है उसी तिथि को हर वर्ष जो क्रिया की जाती है उसे “संवत्सरी”और हर वर्षकन्याचलित सूर्य अर्थात् आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में किया जाने वाला कर्म कनागत या श्राद्ध कहलाता है। कनागत भाद्रपद की पूर्णिमा से लेकर आश्विन की अमावस्या तक अर्थात् 16 दिन तक चलते है।पितृ कर्म के अलावा देव कर्म में भी एक श्राद्ध किया जाता है जिसे नान्दी श्राद्ध कहते है।ये शब्द अक्सर अपने आस-पास होने वाली बड़ी-बड़ी देव प्रतिष्ठाओं और धार्मिक आयोजनों में सुना होगा।श्राद्ध करना इंसान की श्रद्धा का विषय है लेकिन कई लोग इसे एक ढोँग भी मानते है,उनके हिसाब से मौत के बाद कौन देखता है की हमने मृतात्मा के लिए क्या किया? उन विद्वानोँ से मैं कहना चाहूँगा की हिन्दू धर्म पुनर्जन्म में विश्वास करता है और ये एक आत्मावादी धर्म है।हमें पितृ ऋण से मुक्ति प्राप्त करने के लिए श्राद्ध करना ही होता है,सच कहा जाये तो ये संतति का कर्तव्य है की हम अपने पितरो के नाम से ये कर्म करें,,,,,
अश्रद्धा से किया गया हवन ,तप अथवा कुछ आर्य असत् कहलाता है । हे अर्जुन उसका फल न तो मृत्यु के उपरान्त मिलता है और न इस जन्म में ही ।’
” अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत् ।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह ।।”(भगवद्गीता १७/२८) इसीलिए जिन्हें हमारे स्मृति-पुराण ग्रन्थों पर श्रद्धा नहीं है , पितरोंके श्राद्ध-पिण्डदान आदि पर श्रद्धा नहीं है ,उनके श्राद्ध-पिण्डदान करने पर भी उनका यह पितरों के निमित्त किया गया कव्य कर्म निष्फल ही है,,,,,
. श्रुति स्मृति आदि किसी भी शास्त्र में मृत्युभोज ऐसे किसी शब्द का उल्लेख भी नहीं है,,,
केवल श्राद्ध का उल्लेख है जैसा मैंने पहले पैरा में लिखा है,,,,
 अब मुख्य तथ्य यह है कि किसी भी शास्त्र ने वर्तमान में प्रचलित प्रकार के भोज करने कराने का कोई निर्देश बतौर अनिवार्यता भी नहीं किया है,,,,
वरन् विषम संख्या में ब्राह्मणों को ही भोजन का संकेत है वह भी श्रद्धा व अभिरुचि अनुसार ही,,,
 #शास्त्रोंमें विषम संख्या में ब्राह्मणों को भोजन कराने का नियम है ,लेकिन देवकर्म और पितृकर्म में एक भी विद्वान् ब्राह्मण भोजन कराने से जो विशेष फल प्राप्त होता है , वह देव विद्या से विहीन बहुत ब्राह्मणों को खिलाने से भी नहीं होता
एकैकमपि विद्वांसं दैवे पित्र्यै च भोजयेत् ।
पुष्कलं फलमाप्नोति नामन्त्रज्ञान बहूनपि ।।(मनु ०३/१२९)
#भीष्म पितामह का भी ऐसा ही ही वचन है , ‘ भारत ! वेदज्ञ पुरुष अपना प्रिय हो या अप्रिय इसका विचार न करके उसे श्राद्धमें भोजन कराना चाहिये । जो दस लाख अपात्र ब्राह्मणको भोजन कराता है ,उसके यहाँ उन सबके बदले एक ही सदा संतुष्ट रहने वाला वेदज्ञ ब्राह्मण भोजन करने का अधिकारी है ,अर्थात् लाखों मूर्खकी अपेक्षा एक सत्पात्र ब्राह्मण को भोजन कराना उत्तम है ।।’
प्रियो वा यदि वा द्वेष्यस्तेषां तु श्राद्धमावपेत् ।
य: सहस्रं सहस्राणां भोजयेदनृतान् नर: ।
एकस्तन्मत्रवित् प्रीति: सर्वानर्हति भारत ।।(अनुशासन पर्व ९०/५४)
#इसलिए हजारों-लाखों को अन्त्येष्टि-श्राद्धमें खिलाना आवश्यक नहीं है ,अपितु एक ही वेदज्ञ ब्राह्मण को खिलाने से सर्वसिद्धि हो जाती है,,,
#क्या ब्राह्मण भोज मृतक परिवार पर अतिरिक्त बोझ है ? जो अपने देवताओं और पितरोंको हव्य-कव्य देने में सर्व समर्थ हैं ,उन्हें अवश्य वेदकी आज्ञा का पालन करना चाहिये ,
#श्रुतिका वचन है ,देवपितृकार्य में प्रमाद नहीं करना चाहिये देवपितृकार्याभ्यां न प्रमादितव्यम् ।(तै०उ०१/११/१) ।
#मृतकके लिये श्रुतिका वचन है –
अपुपापिहितान्कुम्भान् यास्ते देवा अधारयन् ।
ते ते सन्तु स्वधावन्तो मधुमन्तो घृतश्च्युत: ।। (अथर्ववेद १८/४/२५) अर्थ -‘हे पितृदेवो ! (यान्) जो अपूपापिहितान् ) मालपूवोंसे ढके (कुम्भान् ) घट (ते) आपके लिये (देवा:) अग्नि,विश्वदेवा आदि श्राद्ध देवताओने (अधारयन् ) धारण किये हैं , (ते ते ) वे वे सब (मधुमन्त:) मधुसे युक्त और (घृतश्च्युत:) जिनसे घी चू रहा हो ऐसे पदार्थ आपके लिए (स्वधावन्तः) तृप्ति करने वाले (सन्तु) हों ।’
#अब लोग कहते हैं ,जो समर्थ नहीं हैं ,उन पर तो अतिरिक्त बोझ नहीं है ? गरीब कहाँ से करेगा इतना व्यय ? तो इस पर
#शास्त्रका वचन है , जो श्राद्ध करने में समर्थ नहीं है ,वह फल-मुल-शाकादि से श्राद्ध करे अपि मूलैर्फलर्वापि प्रकुर्याभिर्धनो द्विजः ।
तिलोदकै:स्तर्पयेद् वा पितृन् स्नात्वा समाहिताः ।।( #कूर्मपुराण २२/८६)
#यदि फल-मूल-शाक खिलाने में भी समर्थ नहीं है तो #खुले में जाकर अपने दोनों हाथ #ऊपर करके #पितरों से कहे -‘ हे मेरे पितृगण ! मेरे पास श्राद्धके उपयुक्त न तो धन है ,न धान्य आदि । हाँ ,मेरे पास आपके लिये #श्रद्धा #और #भक्ति है । मैं इन्हीके द्वारा आपको तृप्त करना चाहता हूँ । आप तृप्त हो जाएँ । मैंने (शास्त्रकी आज्ञाके अनुरूप) दोनों भुजाओंको आकाशमें उठा रखा है ।’
न मेऽस्ति वित्तं न धनं च नान्यच्छ्राद्धोपयोग्यं स्वपितृन्नतोऽस्मि ।
तृप्यन्तु भक्त्या पितरो मयैतौ कृतौ भुजौ वर्त्मनि मारुतस्य ।। (#विष्णुपुराण ३/१४/३०)
#श्राद्ध किसे खिलाएँ ? इस पर मनुजी का वचन है –
यत्नेन भोजयेच्छ्राद्धे बह्वृचं वेदपारगम् ।
शाखान्तगमथाध्वर्यु छन्दोगं तु समाप्तिकम् ।। (#मनु०३/१४५)
अर्थात् श्राद्धमें यत्नपूर्वक ऐसे ब्राह्मण को जो बहुत ऋचाओंको जानने वाला वेदपारंगत हो अथवा जिसने वेद की कोई #शाखा पूरी पढ़ी हो , या जिसने #सम्पूर्ण वेद पढ़ा हो भोजन करावे,,,,

 #श्रीमद्वाल्मीकिरामायण और #महाभारत भारतवर्षके दो प्राचीन आर्ष ऐतिहासिक ग्रन्थ हैं । रामायण-महाभारत में भी मृत्योपरान्त १२वे दिन #पिण्डीकरण श्राद्धका स्पष्ट वर्णन मिलता ही है , महाराज दशरथजी का दाह संस्कार करके भरतजीने १२वे दिन ब्राह्मणों को दान और #श्राद्धमें भोजन कराया था –
ततो दशाहेऽतिगते कृतशौचो नृपात्मज: ।
द्वादशेऽहनि सम्प्राप्ते श्राद्धकर्माण्यकारयत् ।।
ब्राह्मणेभ्यो धनं रत्नं ददावन्नं च पुष्कलम् ।(अयोध्याकाण्ड ७७/१-२)
#भगवान् श्रीरामने वनवास में पिताकी मृत्यु का जब ज्ञात हुआ ,तब उन्होंने वन में ही ,इङ्गुदी के गूदे में बेर मिलाकर उसका पिण्ड तैयार किया और बिछे हुए कुशोंपर उसे रखकर अत्यन्त दुःखसे आर्त हो रोते हुए यह बात कही महाराज ! प्रसन्नतापूर्वक यह भोजन स्वीकार कीजिए ; क्योंकि आजकल यही हम लोगोंका आहार है । मनुष्य स्वयं जो अन्न खाता है ,वही उसके देवता भी ग्रहण करते हैं ।।’
“ऐङ्गुदं बदरैर्मिश्रं पिण्याकं दर्भसंस्तरे ।
न्यस्य राम: सुदु:खार्तो रुदन् वचनमब्रवीत् ।।
इदं भुङ्क्ष्व महाराज प्रीतो यदशना वयम् ।
इदन्न: पुरुषो भवति तदन्नास्तस्य देवता: ।।


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