भारतीय रेलवे में बदलाव और सुधार की प्रक्रिया स्वागत योग्य

भारतीय रेलवे में बदलाव और सुधार की प्रक्रिया स्वागत योग्य
अनीष व्यास 
वरिष्ठ पत्रकार
भारतीय रेलवे में बदलाव और सुधार की प्रक्रिया न केवल स्वागत योग्य है, बल्कि दूसरे क्षेत्रों के लिए अनुकरणीय भी है। सरकारी उपक्रमों में रेलवे देश की सबसे बड़ी कंपनियों में शुमार है और एक साथ सबसे ज्यादा लोगों को रोजगार भी रेलवे के जरिए ही नसीब होता है। अत: रेलवे में किसी भी तरह का सुधार सीधे देश की रोजी-रोटी से जुड़ा मामला है। केंद्र सरकार ने 114 साल पुराने रेलवे बोर्ड के ढांचे को बदलने का फैसला कर लिया है, जो एक तरह से बहुप्रतीक्षित था। भारतीय रेलवे बोर्ड का ढांचा आज तक सामंती मानसिकता वाला रहा है।
बोर्ड के जिम्मे काम तो बहुत रहे हैं, लेकिन उसमें जवाबदेही और सेवा गुणवत्ता का जो जरूरी स्तर होना चाहिए, उसका सदा से अभाव रहा है। रेलवे के तहत आने वाली आठ सेवाओं को मिलाकर एक सेवा गठित करना एक ऐसा फैसला है, जिसकी वकालत और चर्चा लंबे समय से होती रही है। विगत 25 वर्षों में पांच से ज्यादा समितियां रेलवे सेवाओं के एकीकरण की सिफारिश कर चुकी हैं। पर इन सिफारिशों को पहले ही क्यों नहीं मान लिया गया? आज जो लाभ गिनाए जा रहे हैं, यह काम तो पहले भी हो सकता था? इसीलिए रेलवे के बारे में लिया गया यह फैसला अनुकरणीय है। अन्य सरकारी विभागों को भी चुस्त-दुरुस्त करने के बारे में जो अच्छी सिफारिशें प्रस्तावित हैं, उनके लिए कदम तेजी से बढ़ाने चाहिए।
रेलवे को कभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 'भारत की विकास यात्रा का ग्रोथ इंजन' बताया था, अब उसी रेलवे को संचालित करने वाले बोर्ड का पुनर्गठन कर उसमें नई जान फूंकने की कोशिश की जा रही है। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने इसमें मौजूदा नौ की बजाय पांच सदस्य (अध्यक्ष सहित) करने और रेलवे के विभिन्न संवर्गों का विलय कर एकल रेलवे प्रबंधन प्रणाली बनाने की स्वीकृति देकर एक लंबित सुधार-प्रक्रिया को अंजाम दिया है। इसके साथ ही, रेल मंत्रालय ने कर्मचारियों की संख्या कम करने और सबसे महत्वपूर्ण गतिविधियों को छोड़ बाकी सबको ‘आउटसोर्स’ करने की दिशा में भी कदम बढ़ाए हैं, जिसकी सिफारिश कई कमेटियों ने की थी।
ये सब ऐसे सुधार हैं, जिनके प्रत्यक्ष फायदे तो अभी शायद ही दिखाई दें, मगर ये गंभीरता से अमल में लाए गए, तो रेलवे के काम-काज में सकारात्मक असर दिख सकता है। आजादी के सात दशकों के बाद भी हमारे यहां रेलवे को चलाने की मानसिकता ब्रिटिशकालीन है। खासतौर से पिछली सदी के 90 के दशक के बाद की तकरीबन सभी सरकारों ने रेल को ‘वोट बैंक’ के तौर पर ही देखा। इसमें संरचनात्मक सुधार करने की बजाय इसका इस्तेमाल राजनीतिक औजार के रूप में किया गया।
रेलवे का ढांचा न केवल सामंती रहा है, बल्कि उसके जरिए सत्ता का संतुलन बनाने-बिठाने की कोशिशें भी पुरानी हैं। ज्यादा से ज्यादा अधिकारियों को खुश करने और प्रभारी होने का एहसास कराने के लिए भी जरूरत से ज्यादा सेवाएं या पद गठित कर दिए जाते हैं। एक लोक-कल्याणकारी राज्य शक्ति का विकेंद्रीकरण चाहता है, लेकिन यह भी परखना चाहिए कि इस विकेंद्रीकरण से क्या वाकई लोक-कल्याण का लक्ष्य पूरा हो रहा है? अच्छी बात है, अब केंद्र सरकार यदि एकीकरण, पदों या सेवाओं की संख्या में कटौती का फैसला ले चुकी है, तो उसे अपने फैसले को सेवा की गुणवत्ता व जवाबदेही सुनिश्चित करके सफल साबित करना होगा। बदलाव जरूरी हैं, लेकिन उससे भी जरूरी है कि इन बदलावों का लाभ रेलवे और देश को मिले। रेल मंत्री पीयूष गोयल ने कहा है कि सरकार रेलवे में गुटबाजी खत्म करना चाहती है, लेकिन लोगों का गुटबाजी से नहीं, बल्कि रेल सेवाओं से सरोकार है। क्या गुटबाजी खत्म होने से रेलवे का कामकाज वाकई तेजी से सुधरने लगेगा और रेलवे को आर्थिक लाभ होने लगेगा? 
समस्या संरचनात्मक भी है। हमारे यहां रेलवे का चार स्तरीय ढांचा है। सबसे ऊपर रेलवे बोर्ड होता है, फिर जोन, डिविजन और बड़े स्टेशनों/ वर्कशॉप का नंबर आता है। अगर इसकी तुलना हम चीन के रेलवे से करें, जिसका हमारी तरह ही विस्तार है, तो स्थिति काफी अलग दिखती है। वहां 2005 में ही चार स्तरीय ढांचे में कटौती करके उसे तीन-स्तरीय बनाने का फैसला ले लिया गया। मकसद पूंजी बचाना और उसका इस्तेमाल नई तकनीक को अपनाने में करना था। यही वजह है कि आज चीन की रेल को काफी उन्नत माना जाता है, जबकि अपने यहां आज भी इसकी 67-68 फीसदी पूंजी कर्मचारियों को वेतन-पेंशन आदि देने में खर्च की जाती है। स्थिति यह है कि सरकार बड़े-बड़े विज्ञापन निकालकर रेलवे द्वारा ‘दो लाख रोजगार’ बांटने को अपनी उपलब्धि बता रही है, जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए। सरकार का काम नौकरी देना नहीं, रोजगार सृजन का माहौल बनाना है। उसे तकनीक को अधिक से अधिक अपनाने पर विचार करना चाहिए, ताकि व्यवस्था उन्नत बन सके। भारतीय रेल इस मामले में काफी तेजी से पिछड़ रही है।
भारतीय रेल का दो काम है- माल ढोना और यात्रियों को सुविधापूर्वक उनके गंतव्य तक पहुंचाना। मगर उन्नत व्यवस्था न होने के कारण दोनों ही मोर्चे पर इसके कदम डगमगाने लगे हैं। पहले देश में कुल माल परिवहन की 80-90 फीसदी ढुलाई मालगाड़ी से होती थी और 74-75 फीसदी यात्री रेल-यात्रा पर विश्वास करते थे। मगर अब माल ढुलाई घटकर 30 फीसदी पर आ गई है और यात्रियों की संख्या में भी तेज गिरावट जारी है। तमाम कमेटियों का मानना है कि जब तक रेल से 40 से 50 फीसदी माल ढुलाई नहीं होगी, इसकी माली हालत को सुधारना काफी मुश्किल है। बेशक अलग से फ्रेट कॉरिडोर बनाने की बात की जाती है, मगर उसे तैयार करने की रफ्तार बहुत तेज नहीं है। इसी तरह, यात्रियों की संख्या भी रेल की क्षमता बढ़ाए बिना बढ़ने वाली नहीं है।
अगर एकीकृत भारतीय रेल प्रबंधन सेवा रेलवे के समेकित विकास का कारण बने, तो इससे बेहतर कुछ नहीं हो सकता। फिर भी सुधार की चुनौतियां अभी कम नहीं हुई हैं। यह देखना होगा कि वह कौन लोग या कौन-सी मनोवृत्ति है, जो 25 साल से इस सुधार के मार्ग में बाधा बनी हुई थी? कौन लोग थे, जो सुधार की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे? कौन लोग हैं, जिन पर इन ताजा सुधारों को सफल साबित करने की जिम्मेदारी है? नए रोजगारों का इंतजार कर रहे देश में रेल अफसरों-कर्मचारियों की संख्या आधी करने की चर्चा कितनी कारगर है? क्या हम धीरे-धीरे रेलवे के निजीकरण की ओर बढ़ रहे हैं? निस्संदेह, आज रेलवे ऐसे अनगिन प्रश्नों व समस्याओं से घिरा हुआ है और उत्तरों व समाधानों का सबको इंतजार है। 

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